महात्मा गौतम बुद्ध का जन्म करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व कपिलवस्तु के महाराजा शुद्धोदन के यहां हुआ था। इनकी माता का नाम महारानी माया था। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। जन्म के कुछ समय बाद माता के देहान्त हो जाने के कारण बालक सिद्धार्थ का लालन-पालन विमाता प्रज्ञावती के द्वारा हुआ। इनका नाम सिद्धार्थ इसलिए रखा गया क्योंकि इनके पिता के संतान प्राप्ति की कामना इन्हीं के जन्म से पूरी हुई थी। राजा शुद्धोदन अपने इस इकलौते पुत्र के प्रति अपार स्नेह रखते थे।
सिद्धार्थ दयालु और दार्शनिक प्रवृत्ति का था। वह अल्पभाषी तथा जिज्ञासु स्वभाव के साथ-साथ सहानुभूतिपूर्ण सहज स्वभाव का जनप्रिय बालक था। वह लोक जीवन जीते हुए परलोक की चिन्तन रेखाओं से घिरा हुआ था। ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि सिद्धार्थ जैसे बेटे का महाराज के यहां जन्म होना उनके लिए सौभाग्य की बात है और यह उनके कुल का नाम रोशन करेगा।
सिद्धार्थ बचपन से ही बहुत गम्भीर और शान्त स्वभाव का था। उम्र बढ़ने के साथ-साथ वह गंभीर व उदासीन होता चला गया। राजा शुद्धोदन ने सिद्धार्थ की यह दशा देख आदेश दिया कि उसे एकान्तवास में ही रहने दिया जाए। सिद्धार्थ को एक एकान्त जगह रखा गया। उसे किसी से कुछ बात करने या कहने की मनाही कर दी गयी। केवल खाने-पीने, स्नान, वस्त्र आदि की सारी सुविधाएँ दी गयीं। सेवकों और दसियों को यह आदेश दिया गया कि वे कुछ भी इधर-उधर की बातें उससे न करें।
एकान्तवास में रहते हुए सिद्धार्थ संसार के रहस्य के प्रति तथा प्रकृति के कार्यों के प्रति जिज्ञासु हो गया था। वह सुख-सुविधाओं के प्रति कम विरक्ति के प्रति अत्यधिक उन्मुख और आसक्त हो चला था। सिद्धार्थ का जिज्ञासु मन अब और मचल गया। उसने बाहर जाने, देखने, घूमने और प्रकृति के पास से देखने की इच्छा प्रकट की। राजा शुद्धोदन ने उनकी यह इच्छा जान उन्हें राजभवन में लौट आने का आदेश दे दिया लेकिन राजभवन में लौटने पर सिद्धार्थ की चिन्तन रेखाएं बढ़ती ही चली गयीं। महाराजा शुद्धोदन को राज ज्योतिषी ने यह साफ-साफ कह दिया था कि यह बालक या तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा या फिर विश्व का सबसे बड़े किसी धर्म का प्रवर्त्तक बनेगा।
इस भविष्यवाणी से राजा शुद्धोदन सावधान हो गये। सिद्धार्थ कहीं संन्यासी या वैरागी न बन जाए, इसके लिए उनका विवाह राजकुमारी यशोधरा से किया गया। इनसे इन्हें एक बेटा उत्पन्न हुआ। उसका नाम राहुल रखा गया। राजसी ठाट-बाट, सुन्दर पत्नी का प्रेम व बेटे राहुल का वात्सल्य भी इनकी गंभीरता व उदासीनता को कम न कर सके। एक दिन सिद्धार्थ ने शहर घूमने की तीव्र इच्छा जतायी।
सारथी उन्हें रथ में बैठाकर नगर से होते हुए कुछ दूर तक ले गया था कि रास्ते में उन्होंने देखा कि कुछ लोग एक शव को श्मशान घाट ले जा रहे हैं। उन लोगों में से कुछ लोगों की अश्रुधारा बह रही थी और चेहरे लटके हुए थे। जिज्ञासु सिद्धार्थ ने सारथी से पूछा कि ये लोग क्या कर रहे हैं ? सारथी ने बताया ये लोग मुर्दा ले जा रहे हैं। सिद्धार्थ ने पूछा मुर्दा क्या होता है ? सिद्धार्थ के यह पूछने पर सारथी ने बताया 'इस शरीर से आत्मा (सांस) के निकल जाने पर यह शरीर मिट्टी के समान हो जाता है जिसे मुर्दा कहा जाता है।'' इस पर सिद्धार्थ ने पुनः प्रश्न किया क्या मैं भी मुर्दा हो जाऊँगा ? इसी तरह रोगी और बूढ़े को देख सारथी से पूछने पर सिद्धार्थ ने यही पाया था कि उसे भी एक दिन रोग और बुढ़ापा के घेरे में आना पड़ेगा। इससे सिद्धार्थ का मन विराग से भर उठा। इस घटना के कुछ दिन बाद एक दिन ऐसा आया कि रात को सोते हुए अपनी धर्मपत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को छोड़ सिद्धार्थ संन्यास के मार्ग पर चल पड़े।
सिद्धार्थ घर-परिवार छोड़कर शान्ति और सत्य की खोज में वर्षों भटकते रहे। घोर तपस्या के कारण उनका शरीर कांटा हो गया। वे गया में वट वृक्ष के नीचे समाधिस्थ हो गये। बहुत समय के बाद अकस्मात उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया। ज्ञान प्राप्त होने के कारण वे महात्मा बुद्ध कहलाने लगे। इसके बाद वह बौद्ध-धर्म का प्रचार-प्रसार करने लगे। गौतम बुद्ध ने बौद्ध धर्म की शिक्षा और उपदेश के द्वारा ज्ञान दिया कि अहिंसा परमधर्म है। सत्य की विजय होती है। मानव धर्म ही सबसे बड़ा धर्म है।
बुद्ध ने धर्म का तीन भागों में वर्गीकरण किया है, धर्म, सधर्म व अधर्म। धर्म की व्याख्या करते हुए बुद्ध कहते हैं कि 'जीवन की पवित्रता बनाए रखना धर्म है। पवित्रता तीन प्रकार की होती है। शारीरिक, मानसिक और वाणी की पवित्रता। एक आदमी जीव हिंसा, चोरी और काम मिथ्याचार से विरक्त रहे इसे ही शारीरिक पवित्रता कहते हैं। काम द्वेष आलस्य की उत्पत्ति को जानना और भविष्य में उनकी उत्पत्ति को रोकना मानसिक पवित्रता होती है। झूठ न बोले, व्यर्थ की बातचीत न करें, चुगली न करें, कटु न बोलें, यही वाणी की पवित्रता है। जीवन में पूर्णता प्राप्त करना धर्म है। सभी विकारों से मुक्त होकर चित्त निर्मल कराना मन की पूर्णता कहलाती है।
निर्माण की प्राप्ति के लिए भगवान बुद्ध ने तीन बातों को आधार बताया। इनमें पहली में कहा गया किसी आत्मा का सुख नहीं बल्कि प्राणी का सुख हो। यह सुख इस जन्म में हो तथा राग-द्वेष से मुक्त हो। बुद्ध ने तृष्णा को दुःख का मूल कारण बताते हुए उसके त्याग को धर्म कहा है। तृष्णा त्यागने का अभिप्राय लोभ के वशीभूत न होना है। वे सबसे बड़े धन संतोष को मानते थे लेकिन उनका यह भी कहना था कि बेचारगी और परिस्थिति के सामने सर झुकना संतोष नहीं कहलाता।
भगवान बुद्ध के अनुसार प्राणी का शरीर, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, नामक चार महाभूतों का परिणाम है और उनका अलग होना ही मृत्यु है। अनेक तत्वों से मिली वस्तु अनित्य है। जो कुछ है वह प्रतिक्षण बदल रहा है। अनित्यता हमें आसक्ति के प्रति सचेत करके हमारे दुःखों को कम करती है। कर्म को मानव जीवन के नैतिक संस्थान का आधार मानना ही धर्म है। उनकी मान्यता थी कि कुशल कर्म करो ताकि उसे नैतिक कर्मों का सहारा मिले और उससे मानवता लाभान्वित हो। धर्म को समझने के लिए अधर्म की जानकारी होना भी जरूरी है। सधर्म के बारे में उनका कहना था कि मन के मैल को दूर करके उसे निर्मल बनाना ही सधर्म है। मन शुद्ध है तो शुद्ध वाणी निकलेगी और अच्छे कार्य होंगे।